जीवन के 60वें वर्ष में चल रहे जगत प्रकाश नड्डा तमाम परीक्षाओं में खरा उतरने के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर पहुंचे हैं या फिर उनकी असली परीक्षा अब होनी है? इस स्वाभाविक सवाल का जवाब दे पाना आज शायद बेहद मुश्किल हो सकता है। बेशक केंद्र समेत अनेक राज्यों में सत्तारूढ़ और तेज रफ्तार विस्तार वाली राजनीतिक पार्टी का नेतृत्व संभालना किसी भी राजनेता के लिए बड़ी उपलब्धि हो सकती है। आखिर हम नेतृत्व के सवाल पर ही दूसरे दलों में असमंजस और परिवारों में अंतर्कलह देखते रहे हैं। यह नेतृत्व का ही सवाल था, जिस पर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और यादव परिवार में चाचा-भतीजे में विभाजक रार हुई। हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल और उसका नेतृत्व करने वाला चौटाला परिवार भी नेतृत्व की जंग में ही दोफाड़ हुआ। बिहार में राजद पर राजनीतिक वर्चस्व को लेकर लालू प्रसाद यादव के परिवार में जारी अंतर्कलह भी गोपनीय नहीं है। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल, कमान के सवाल पर ही गहरे राजनीतिक संकट की ओर बढ़ रहा है। कह सकते हैं कि ये सभी तो परिवार केंद्रित क्षेत्रीय दल हैं, लेकिन कांग्रेस तो उस श्रेणी में नहीं आती? देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में भी नेतृत्व का संकट कम गहरा नहीं है। सोनिया गांधी से राहल गांधी ने कांग्रेस का नेतृत्व संभाला था, लेकिन लगातार दूसरे लोकसभा चुनावों में पार्टी की ऐतिहासिक दुर्गति के बाद उन्होंने राजहठ करते हुए पिछले साल इस्तीफा दे दिया। राहुल के इस्तीफे के बाद अटकलें तो कई तरह की लगीं। कुछ लोगों ने खुद को नेतृत्व का दावेदार भी मान लिया, पर अंतत- जो हुआ, वह सबके सामने है। राहुल ने इस्तीफे का राजहठ नहीं छोड़ा तो सोनिया गांधी को ही अंतरिम अध्यक्ष बनकर वापस आना पड़ा। उनके अंतरिम अध्यक्ष काल में किसी नये पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव की किसी भी तरह की चर्चा तक न होने से भी इस धारणा को बल मिल रहा है कि उनसे नेतृत्व की कमान वापस राहुल गांधी ही संभालेंगे। बेशक अपने नेतृत्व का फैसला खुद कांग्रेस को करना है, पर वह एक राजनीतिक दल है, कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी नहीं। इसलिए वह जो भी फैसला करेंगी, गुण-दोष के आधार पर उसकी व्याख्या-विश्लेषण तो होगा ही। हमारे राजनीतिक दलों के इस आचरण-व्यवहार के मद्देनजर देखें तो एक मध्य वर्गीय अराजनीतिक परिवार से आने वाले जगत प्रकाश नड्डा का विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में सबसे बड़े दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना एक सामान्य घटना तो हरगिज नहीं है। यही कारण है कि अपने नये राष्ट्रीय अध्यक्ष की ताजपोशी के अवसर पर भी भाजपा के नेता कांग्रेस पर हावी परिवारवाद पर कटाक्ष करने से नहीं चूके। स्वाभाविक ही इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और निवर्तमान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत तमाम वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने नड्डा को शुभकामनाएं देते हुए उम्मीद जतायी कि उनके नेतृत्व में पार्टी और भी बुलंदियों को छुएगी। ऐसे अवसर पर ऐसी शुभकामनाएं स्वाभाविक ही हैं। नेतृत्व संभालने वाला व्यक्ति भी ऐसा ही विश्वास दिलाता है और सपना भी ऐसा ही करने का पालता है। इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं कि हर नये नेतृत्व को आने वाले समय में राजनीतिक परीक्षाओं की कसौटियों पर कसा जाये। इसलिए नड्डा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से भाजपा के स्वप्रचारित आंतरिक लोकतंत्र की पुष्टि के दावों के बावजूद उनके नेतृत्व की असली परीक्षा आगामी राजनीतिक घटनाक्रमों, खासकर चुनावी चुनौतियों के रूप में ही होगी। यह सही है कि छात्र जीवन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़कर राजनीति में आये और भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहने के बाद भाजपा में भी राष्ट्रीय महासचिव एवं कुछ माह कार्यकारी अध्यक्ष भी रहे नड्डा के पास लंबा संगठनात्मक अनुभव है। हिमाचल प्रदेश में विधायक एवं मंत्री रह चुके नड्डा के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के अलावा किसी से असहज संबंधों की चर्चा भी कभी सुनायी नहीं दी। अगर वह असहजता नहीं होती तो शायद वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में धूमल की हार के बावजूद भाजपा को बहुमत मिल जाने पर नड्डा ही हिमाचल प्रदेश के नये मुख्यमंत्री होते, लेकिन शायद नियति ने उनके लिए उससे कहीं बड़ी भूमिका चुन रखी थी। अब जबकि नड्डा को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में वह भूमिका मिल गयी है तो उनकी चुनौतियां ज्यादा जटिल इसलिए हो जाती हैं, क्योंकि उन्होंने पार्टी की कमान उन अमित शाह से संभाली है, जिन्होंने अप्रत्याशित चुनावी सफलताओं के जरिये अध्यक्ष के रूप में अपनी छवि इतनी विराट बना ली कि हर आने वाले अध्यक्ष का आकलन उसी आलोक में किया जायेगा। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में जब, तीन दशक के अंतराल के बाद, भाजपा ने अकेलेदम बहुमत हासिल कर सभी को चौंका दिया, उससे पहले भाजपा देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तीसरे स्थान पर खिसक चुकी थी। ध्यान रहे कि लोकसभा चुनावों के समय तो अमित शाह पार्टी अध्यक्ष भी नहीं थे, सिर्फ प्रदेश के प्रभारी महासचिव थे, पर 80 में से 71 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया। तब भी लगता था कि केंद्र में सरकार बनाने के लिए मिले इस अप्रत्याशित समर्थन के बावजूद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में तस्वीर कुछ अलग ही रहेगी, लेकिन तब तक अध्यक्ष बन चुके शाह ने ऐसी चुनावी बिसात बिछायी कि बहुमत से भी बहुत ज्यादा भाजपा ने 325 सीटें जीतने का करिश्मा कर दिखाया। यह तब हुआ, जब नोटबंदी के बाद मोदी और भाजपा की लोकप्रियता गिरने के कयास लगाये जा रहे थे। नोटबंदी, जीएसटी, बढ़ती बेरोजगारी और बेलगाम महंगाई के बावजूद जब पिछले साल लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें, घटने की अटकलों के बावजूद, और बढ़ कर 300 के पार चली गयीं तो गुजरात की राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में आये मोदी- शाह की जोड़ी का लोहा सभी ने मान लिया। बेशक भाजपा के राजनीतिक सफर में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकेगा, लेकिन मोदी-शाह के दौर में भाजपा ने जो हासिल किया है, वह किसी भी राजनीतिक दल का सपना हो सकता है। कई फैसलों-मुद्दों पर असहमति हो सकती है, लेकिन अगर भाजपा और उसके मात संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे के नजरिये से देखें तो इस जोड़ी के नेतृत्व काल में उस दिशा में पार्टी और सरकार की रफ्तार बेहद तेज रही है। फिर भी अगर बतौर अध्यक्ष नड्डा का सफर चुनौतीपूर्ण माना जा रहा है तो इसलिए कि केंद्रीय स्तर पर अभी भी अजेय नजर आ रही भाजपा की कमजोरियां राज्य स्तर पर उजागर होने लगी हैं। सहयोगी दल भी साथ छोड़ने लगे हैं। वर्ष 2018 के अंत में भाजपा ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता गंवायी थी तो 2019 में उसके हाथ से महाराष्ट्र और झारखंड की सत्ता निकल गयी। हरियाणा में सत्ता तो बची, लेकिन नवगठित क्षेत्रीय दल जेजेपी से गठबंधन की कीमत पर। चुनावी चुनौतियों की बात करें तो नड्डा की पहली परीक्षा दिल्ली विधानसभा चुनाव होंगे, जहां अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ है। लोकसभा में दोनों ही बार भाजपा ने सभी सात सीटें जीती हैं,